एक थी...आरजू - 1 Satyam Mishra द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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एक थी...आरजू - 1

एक थी आरजू-1


प्रिय पाठकों,यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक है जिसका किसी भी व्यक्ति के जीवन अथवा किसी घटना विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं है। कहानी का उद्देश्य मनोरंजन मात्र है,किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचना नहीं। यदि कहानी में कहीं भी कोई गलती हुई है तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ--सत्यम मिश्रा!
आरजू!
बाईस तेईस वर्षीय बला सी खूबसूरत और मॉर्डन ख्यालातों की गुलाम लड़की। तीखे नैन नख्श और कातिल अदाओं वाली आरजू दिल्ली के एक रिहायशी इलाके के ऊंचे तबके के लोगों में शुमार हरिओम बंसल और नैना बंसल की एकमात्र औलाद। बंसल साहब का इलाके में ही नहीं दिल्ली के कई क्षेत्रों में बड़ा नाम था। उनकी दिल्ली के ही एक क्लॉथ मार्केट में बड़ी होलसेल शॉप थी जिसकी वजह से अच्छा खासा पैसा और शोहरत कमा चुके थे वह।

आरजू उनकी इकलौती औलाद थी जिसे वह बेइंतहा प्यार करते थे। शादी के बाद आठ साल तक जब हरिओम बंसल की कोई औलाद न हुई तो वह परेशान रहने लगे। इस दौरान उन्होंने हर तरह के जतन किये--डॉक्टरों से टेस्ट,जांचे,सब कुछ करवाई लेकिन सब निरर्थक रहा। ईश्वर से ले कर अल्लाह तक सभी के दर पर गए दोनो दम्पति,मन्नतें भी मांगी,मजारों पर चादरें चढ़वाई,गरीबों में कम्बल बांटे,दान पुण्य भी भरपूर किया। इस बार उनकी मनोकामना पूर्ण हुई।
नैना जी की गोद भर आई। और उसके ठीक नौ महीने बाद उनके आशियाने पर एक फूल सी लड़की ने जन्म लिया जिसका नाम उन्होंने अपने जिंदगी की एकमात्र तमन्ना के कारण 'आरजू' रखा।

आरजू के घर में आते ही दोनों का तन्हापन दूर हो गया। जितना नैना जी अपनी बेटी से प्यार करती थी उससे कहीं अधिक आरजू अपने पापा हरिओम की लाडली थी। हरिओम जी अपनी बेटी की सभी इच्छाओं को पूरी करते थे। उसके कहीं भी घूमने फिरने पर किसी किस्म की कोई पाबंदी नहीं लगाते थे। आरजू को जब भी जितने पैसों की दरकार होती थी वह अपने पिता से कह देती थी--हरिओम जी भी बिना किसी हुज्जत के,बिना कोई पूछताछ के उसे मुंहमांगी रकम दे दिया करते थे। उनका सोचना था की आखिर ये सारा पैसा है तो उनकी बेटी का ही। कई बार तो लोग-बाग ये भी कहते थे की "बंसल साहब लड़कियों की सभी जिदें पूरी करना भी ठीक नहीं होता है,अक्सर वो बिगड़ जाया करती हैं" तो इस पर बंसल साहब मुस्करा कर यही जवाब दिया करते थे की "आरजू ने उनके जीवन की सबसे बड़ी ख्वाहिश को जन्म ले कर पूरा किया है अब उनका फर्ज बनता है की वो भी अपनी बेटी की सभी इच्छाओं को पूरा करें,और उसे जमाने भर की खुशियां दें।"

दिन गुजरते गए।
आरजू ने जवानी की दहलीज में कदम रख लिया। जवानी की दहलीज में कदम रखते ही उसके जिस्म में ऐसी तब्दीली आई जिससे उसके रूप यौवन में और भी निखार आ गया। वह पहले से भी इंतहाई खूबसूरत और हसीन हो गई। जो लड़का भी उसकी ओर देखता-बरबस देखता ही रह जाता। देखते ही देखते वह शहर के तमाम नौजवानों की ख्वाहिश बनने लगी।

अब तक आरजू की कई ऐसी फ्रेन्स बन चुकी थी जो उसी की तरह मॉर्डन ख्यालातों से वास्ता रखती थी। आरजू ऐसी फ्रेंड्स के ग्रुप में लीडर थी। अपने ग्रुप के साथ सिनेमा,महंगे मॉल्स,डिस्को और पार्टियों में जाना उसका रोज का काम बन चुका था। पैसों की कोई कमी तो थी ही नहीं अतः हमेशा ही इन सबका खर्चा वह स्वयं वहन करती थी। इसी दौरान अपने रईस फ्रेंड्स के बीच में रहते हुए उसे सिगरेटकशी और बादाख़ोरी की भी लत लग गई। अक्सर देर रात तक डिस्को पार्टी में जा कर आरजू के सिगरेट और महंगे ब्रांड की शराब का सेशन चलता रहता था,जिसमे उसके मुफ्तखोर फ्रेंड जोन के कई लोग भी शामिल रहते थे। वह अपने मां बाप से छुपकर उनके पैसों और अपनी जवानी को बाहरी दुनिया की रंगीनियों में खुलेआम तबाह कर रही थी।
हरिओम जी को कानों कान खबर न थी की उनकी बेटी इस तरह के गुल खिला रही थी। वह तो अभी भी उसे बच्ची की तरह ही समझ रहे थे। हर पैरेंट्स के लिए उनके बच्चे बच्चे ही रहते हैं चाहे वो कितने ही बड़े क्यों न हो जाएं,यही मसला हरिओम जी के साथ भी थी। वह आरजू की तमाम चाहतें और गैरजरूरी ख्वाहिशें बिना सोचे समझे पूरी कर देते थे।

कई बार तो आरजू अपनी मां नैना से अपने फ्रेंड के घर को बोलकर जाती थी और देर रात किसी बार-पार्टी से वापस लौटती थी जिसकी बाबत जब नैना पूछती थी तो खुद हरिओम जी ही नैना को ये कह कर चुप करा देते थे की "बेचारी आरजू किसी वजह से लेट हो गई होगी इसमे इतना परेशान होने की कोई बात नहीं होनी चाहिए। थी तो अपनी फ्रेंड के ही साथ,और फ्रेंड सर्किल में अक्सर लेट हो ही जाया करती है।"
आरजू हमेशा से पिता हरिओम की ओर से मिलने वाली छूट का नाजायज़ फायदा उठाती रही। अक्सर वह शार्ट ड्रेस में जब घर से बाहर जाने को होती तो नैना उसे टोकती लेकिन हरिओम के यह कहने पर खामोश हो जाती की "यही तो उम्र है बच्ची की अपने मन का पहनने ओढ़ने की,अभी नहीं पहनेगी तो क्या शादी के बाद पहनेगी।" इस बात पर खुश हो कर आरजू अपने पापा को गले से लगा कर कहती "थैंक्यू डैडी,घर में तो एक आप ही मुझे समझते हैं,वर्ना मॉम तो एव्री टाइम मेरे पैरों में जंजीरें डाले रहती हैं।" और इस बात पर हरिओम जी हँस पड़ते।

समय गुजरता रहा।
आधुनिकता की होड़ और मौज मस्ती के चलते आरजू की आदतें और अधिक खराब होने लगीं। एक बार तो हरिओम जी के पड़ोसी गुप्ता साहब ने एक बार की पार्टी में आरजू को शराब पीते हुए भी देख लिया जिसकी बाबत जब उन्होंने हरिओम जी को बताया तो उन्हें इस बात का यक़ीन ही न आया। उल्टे उन्होंने खुद ही गुप्ता जी से कहा की उनकी बेटी आरजू इस तरह की गिरी हुई हरकत हरगिज नहीं कर सकती है। उसे जरूर कोई धोखा हुआ होगा। वह मॉर्डन ख्यालों की लड़की जरूर है लेकिन अपने मान मर्यादा का ख्याल रखती है। उसके विचार भले ही नई पीढ़ी के हैं लेकिन वह अपने संस्कारों का गला घोंटने वाली लड़की बिल्कुल नहीं है। और फिर उसके बाद बंसल साहब ने अपने उन पड़ोसी साहब से बात चीत करना ही बन्द कर दिया--बात चीत ही नहीं रिश्ता भी खत्म कर दिया।

क्रमशः..............